1970 के दशक में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद हजारों शरणार्थियों ने सीमा पार कर पश्चिम दिनाजपुर को अपना घर बनाया। हालांकि, उनके लिए जीवन आसान नहीं था, क्योंकि उनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं था। इन्हीं चुनौतियों के बीच, इन शरणार्थियों ने अपने सपनों को बुनने के लिए करघे को चुना, जिसने एक ऐसे वस्त्र उद्योग को जन्म दिया जिसने जल्द ही गंगा रामपुर की पहचान को परिभाषित किया।
बासाकपाड़ा, दत्तापाड़ा, भोडांगपाड़ा और स्कूलपाड़ा जैसे और इनके आसपास के इलाकों में 30,000 से अधिक बुनकरों के हाथों से चलने वाले करघों की लयबद्ध खड़खड़ाहट गूंजने लगी। ये बुनकर सामंजस्य में काम करते हुए रंगीन और किफायती साड़ियाँ बनाते थे, जिनकी बाजार में खूब मांग थी। इस प्रकार, गंगा रामपुर अपने लोगों, संस्कृति और गर्व के लिए एक पहचान बन गया।
यह वस्त्र उद्योग केवल आजीविका का साधन नहीं था, बल्कि यह समुदाय की दृढ़ता और नवाचार का प्रतीक भी था। शरणार्थियों ने न केवल अपने लिए एक नया जीवन बनाया, बल्कि एक ऐसा आर्थिक इंजन भी तैयार किया जिसने पूरे क्षेत्र को समृद्ध किया। गंगा रामपुर की यह कहानी मानवीय भावना की अदम्य शक्ति और चुनौतियों के बावजूद सपनों को साकार करने की क्षमता का एक शानदार उदाहरण है।



