World

राम भक्ति पर पीएम मोदी का विरोध करने वाले संविधान हितैषी हैं या प्रपंची?

भारत के 75वें गणतंत्र दिवस की तैयारियों पर इस सप्ताह अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन का साया मंडरा गया। ऐसा आभास होता है कि दोनों प्रतिस्पर्धा में हैं – एक ओर राम को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में रखने वाला हिंदू गणराज्य और दूसरी ओर संविधान को प्रतीक के रूप में रखने वाला धर्मनिरपेक्ष गणराज्य। लेकिन यह पूरी तरह गलत चरित्र चित्रण है क्योंकि संविधान एक धार्मिक नायक के सार्वजनिक उत्सव के साथ पूरी तरह से संगत है।

साम्प्रदायिक संविधान: मैथ्यू जॉन ने अपनी अद्भुत तर्कपूर्ण पुस्तक में लिखा है कि संविधान निर्माताओं ने भारतीयों को सांप्रदायिक पहचान – हिंदू और मुस्लिम – के रूप में देखा, जैसा कि अंग्रेजों ने किया था। इसका मतलब यह नहीं था कि वे विभाजनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे थे बल्कि इसके विपरीत उन्होंने पहचाना कि भारतीयों में विविधता है और फिर बहुत सोच-समझकर सबके लिए एक धरातल मुहैया कराने की कोशिश हुई। यही कारण है कि जब विवाह और अन्य व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की बात आई तो केवल हिंदू कानून में सुधार किया गया जबकि बाकी सभी धर्मों में बहुविवाह की प्रथा तब भी व्यापक रूप से प्रचलित थी। समुदायों में सुधार एक झटके में नहीं बल्कि टुकड़ों में किया जाएगा।

समतुल्य अवस्था: इस तरह नए गणतंत्र ने धार्मिक प्रथाओं को आधुनिक बनाने का काम अपने ऊपर ले लिया, जो संविधान निर्माताओं के विचारों के अनुरूप था कि नया भारतीय राज्य भारतीयों के लिए स्वतंत्रता का सक्रिय गारंटर होगा। यह एक निष्क्रिय राज्य बने रहकर, धार्मिक प्रथाओं को जारी रखकर ऐसा नहीं करेगा, जिसे ‘कोई लेना-देना नहीं’ वाली धर्मनिरपेक्षता के रूप में वर्णित किया गया है।

सक्रिय धार्मिक नियमन: इसके बजाय संविधान ने देश को हिंदू मंदिरों में सभी जातियों के लोगों के प्रवेश सुनिश्चित करवाने का कानून पारित करने में सक्षम बनाया और राज्य को सभी धर्मों के गैर-धार्मिक पहलुओं को रेग्युलेट करने के लिए भी अधिकृत किया। जैसे वक्फ बोर्ड कानून और टेंपल बोर्ड कानून जो क्रमशः मुस्लिम और हिंदू धार्मिक समूहों की संपत्ति को रेग्युलेट करते हैं। संविधान का संदेश साफ है- राज्य सक्रिय रूप से सुधारवादी होगा, भले ही विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच समानता हो।

फ्रांसिसी धर्मनिरपेक्षता का अनुकरण नहीं: फ्रांस में लैसाइट लागू है। मतलब सार्वजनिक स्थल पर कोई भी व्यक्ति धार्मिक प्रतीक इस्तेमाल नहीं कर सकता है। धर्मनिरपेक्षता की फ्रांसीसी अवधारणा साफ है- चर्च को राज्य सेअलग करना। भारतीय संविधान ने इसका अनुकरण नहीं किया। दिलचस्प बात यह है कि संविधान में लैसाइट का एक मजबूत समर्थक अखिल भारतीय हिंदू महासभा था, जिसका नेतृत्व उसके लंबे समय के नेता विनायक दामोदर सावरकर ने किया था। महासभा से समर्थित ‘हिंदुस्थान फ्री स्टेट के संविधान’ में स्पष्ट प्रावधान था, ‘आज भारत में या उसके किसी भी प्रांत के लिए कोई राज्य धर्म नहीं होगा।’

सावरकर को ना: यदि यह प्रावधान संविधान में शामिल किया गया होता तो यह तर्क दिया जा सकता था कि प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार के प्रमुख के रूप में किसी मूर्ति की प्रतिष्ठा करके संविधान की भावना का उल्लंघन किया। लेकिन सावरकर के संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के चरम समर्थन को नजरअंदाज कर दिया गया।

भगवान के नाम पर: यह भारतीय नागरिक के जीवन में आध्यात्मिकता की केन्द्रीयता की पहचान थी। इस विचार के भी बहुत ज्यादा समर्थक थे। स्वतंत्रता सेनानी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के फॉरवर्ड ब्लॉक के महासचिव हरि विष्णु कामत चाहते थे कि यह केंद्रीयता प्रस्तावना में ही प्रतिबिंबित हो। उन्होंने एक संशोधन प्रस्तावित किया कि संविधान की शुरुआत ‘ईश्वर के नाम पर’ से होनी चाहिए। वह संशोधन मामूली अंतर से पराजित हुआ।

जहां धर्म, वहां विजय: फिर भी इस सप्ताह के अंत में अपने अस्तित्व के 75 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहे सुप्रीम कोर्ट को अपने आदर्श वाक्य ‘यतो धर्म ततो जय: (धर्म की जीत होती ही है)’ को अपनाने में कोई परेशानी नहीं हुई। भारतीय गणतंत्र ने हमेशा सर्वोच्च सत्ता के महत्व को, चाहे कोई उसे किसी भी नाम से पुकारना चाहे, और जीवन को आकार देने वाली एक अंतर्निहित शक्ति के रूप में धर्म को मान्यता दी है। लेकिन इसने कभी भी भारतीय राज्य का मूलभूत आधार नहीं बनाया।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button