अमेरिका की चाल, रूस का ‘धोखा’… भारत के अदम्य साहस का प्रतीक है चंद्रयान, अब घुटनों पर आया नासा
Followवॉशिंगटन: भारत और अमेरिका के रिश्ते इस दौर में जितने मजबूत हैं, शायद ही कभी रहे हों। आज जब भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो के चंद्रयान-3 पर अमेरिकी एजेंसी की नासा की भी नजरें हैं तो इतिहास के एक किस्से का भी जिक्र जरूरी हो जाता है। यह किस्सा उन दिनों का है जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, एक सांसद के तौर पर आगे बढ़ रहे थे। चंद्रयान-3 को सबसे हैवी रॉकेट जीएसएलवी मार्क 3 से लॉन्च किया गया है। इस रॉकेट में जो क्रायोजेनिक इंजन लगा है, कभी उसकी टेक्नोलॉजी में बाइडन ने सबसे बड़ा अड़ंगा डाला था। हैरानी की बात है कि जिस अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तरफ से आज भारत के लिए तालियां बज रही हैं, कभी उसे भी भारत से डर लगा था। जानिए कैसे बाइडन की वजह से भारत के चंद्रयान समेत अंतरिक्ष से जुड़े कई मिशन में 30 साल की देरी हुई।
‘सीनेटर’ बाइडन बने विलेन!
यह बात सन् 1992 की है और बाइडन उन दिनों डेलावेयर से सीनेटर थे। इसरो के गठन को भी 35 साल हुए थे। बाइडन ने उस समय जो कुछ किया उसकी वजह से क्रायोजेनिक इंजन तैयार करने में काफी समय लग गया। अमेरिका का मून मिशन सफल हो चुका था और भारत की नजरें अंतरिक्ष मिशन पर थीं। सोवियत संघ का पतन हो चुका था और रूस का गठन हो गया था। सन् 1991 में भारत ने रूस के साथ एक डील की जिसके तहत उसे क्रायोजेनिक इंजन की टेक्नोलॉजी मिलनी थी। इस टेक्नोलॉजी के तहत सात इंजन तैयार होने थे। इस डील की कीमत करीब 235 करोड़ थी। इस डील की कीमत अमेरिकी कंपनी जीई के साथ हुई डील से एक चौथाई कम थी। जीई ने 800 करोड़ रुपए में भारत को इंजन की पेशकश की थी।
भारत और रूस की डील
अमेरिका में बतौर राष्ट्रपति रिपब्लिकन पार्टी के जॉर्ज बुश सीनियर की तरफ से कई बड़े फैसले लिए जा रहे थे। वहीं, रूस की कमान नए राष्ट्र्रपति बोरिस येल्तसिन के हाथ में थी। दूसरी तरफ भारत में आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हो चुका था।भारत सन् 1971 से क्रायोजेनिक इंजन तैयार करने की कोशिशों में लगा था। सन् 1980 में इस प्रोग्राम को फिर से बहाल किया गया। क्रायोजेनिक इंजन की वजह से किसी भी ताकतवर सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजा जा सकता है। सन् 1986 में इस पर काम शुरू हुआ। सन् 1988 में अमेरिका की जीई ने भी इन इंजन की बिक्री का प्रस्ताव रखा था। सन् 1989 में रूस की अंतरिक्ष एजेंसी रोस्कोस्मोस की शाखा ग्लैवकोस्मोस के साथ भारत ने डील को फाइनल किया था। रूस ने साफ कर दिया था कि वह सिर्फ इंजन की बिक्री करेगा और टेक्नोलॉजी का ट्रांसफर नहीं होगा।



