दुनिया हैरान, इतने सस्ते में चांद पर कैसे पहुंचा भारत, राज जानेंगे तो आप भी कहेंगे- वाह!
हर बार जब इसरो का रॉकेट उड़ान भरता है या चंद्रयान-3 जैसे मिशन को पूरा किया जाता है तो खर्च को लेकर प्रोजेक्ट की फिल्मों के साथ तुलना की जाती है। अब यह आम बात है। वैसे, किसी अंतरिक्ष मिशन की सटीक लागत का पता लगा पाना मुश्किल है क्योंकि ज्यादातर देश अंतरिक्ष संबंधी गतिविधियों को सब्सिडी देते हैं। चंद्रयान-3 पर करीब 600 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। अब आप तुलना कीजिए कुछ दिन पहले चांद पर क्रैश हुए रूस के लूना-25 यान की लागत 1,600 करोड़ रुपये थी। हालांकि चंद्रयान-3 को चांद तक पहुंचने में 40 दिन लगे, जबकि लूना को 11वें दिन उतरना था। सवाल उठता है कि भारत कैसे कर लेता है? इसरो के अध्यक्ष एस. सोमनाथ ने बुधवार को विक्रम के चांद पर उतरने के बाद हल्के मूड में कहा था, ‘यह एक रहस्य है।’ TOI ने इसका जवाब खोजने के लिए इसरो के कई वैज्ञानिकों से बात की। उन सभी ने कहा कि एक साइंस मिशन की दूसरे के साथ तुलना करना अनुचित है। हालांकि वे सभी इस बात पर सहमत दिखे कि तीन फैक्टर इसरो के मिशन की लागत को कम रखते हैंः स्वदेशीकरण, कुशलता और सस्ता मैनपावर।
खर्च कैसे बचाता है ISRO

चंद्रयान-3 की तुलना लूना-25 से करने पर भारत की सबसे बड़ी बचत रॉकेट से समझ में आती है। रूस ने लूना-25 को पुश देने के लिए एक अतिरिक्त बूस्टर का इस्तेमाल किया, जिससे इसे सीधे ट्रांस-लूनर इंसर्शन (टीएलआई) चरण में आगे बढ़ाया जा सका, जबकि भारत को टीएलआई से पहले कई बार पृथ्वी के चक्कर लगाने पड़े। इसरो के वैज्ञानिकों का कहना है कि यहां लागत की बचत प्रॉपल्शन पर थी।
एक पूर्व निदेशक ने कहा, ‘रॉकेट जितना बड़ा होगा, आप उतना ही अधिक खर्च करेंगे।’ इसरो के पूर्व अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने कहा कि इसरो के पास एक मॉड्यूलर फिलॉसफी है। हम अगले रॉकेट और उपग्रहों को बनाने के लिए विरासत के साथ यानी पिछली प्रणालियों और संरचनाओं का इस्तेमाल करते हैं। GSLV में बहुत सारी सामान्य प्रणालियां हैं जो PSLV से आई हैं। हम अंतरिक्ष यान बनाते समय सामान्य उपग्रह संरचनाओं का इस्तेमाल करते हैं। पूर्व निदेशक ने कहा कि यह लॉन्च वीकल और उपग्रहों की लागत में कमी सुनिश्चित करता है।
अब समझिए अंदर की बात!




