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बिहार में ‘ठाकुर का कुआं’ पर सियासी टक्कर, मनोज झा ने जो कविता पढ़ी उसके बारे में सबकुछ जानें

कुल 54 शब्द और 19 लाइन की कविता पर बिहार में सियासी संग्राम मचा है। समाज में अपर कास्ट कही जाने वाली दो जातियों के सांसद और विधायक आमने-आमने हैं। खास बात कि ये दोनों एक ही पार्टी (आरजेडी) से ताल्लुक रखते हैं। ये बिहार की सत्ताधारी दल है। राष्ट्रीय जनता दल खुद को पिछड़ों की हितैषी बताती है। मगर, पूरा विवाद सवर्ण जाति से जुड़ा हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि वो कौन-सी कविता है, जिसे राजनेता अपनी स्वार्थ के लिए इसे जातिगत भावना भड़काने तक पहुंचाना चाहते हैं। तो सबसे पहले उस कविता को जान लेते हैं।

पुस्तक- दलित निर्वाचित कविताएं (पेज नंबर 56)
शीर्षक- ठाकुर का कुआं
लेखक- ओमप्रकाश वाल्मीकि

चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का।

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की।

कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?

गांव?
शहर?
देश?

मनोज झा के साथ आ गई आरजेडी

गूगल में खोजने पर ये कविता मिल जाएगी। इसे कविता को महिला आरक्षण पर बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज झा ने सदन में 22 अक्टूबर को सुनाया था। इसके पांच दिन बाद आरजेडी के शिवहर से विधायक और पूर्व सांसद आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद ने सोशल मीडिया पर विरोध किया। उन्होंने लिखा कि ‘हम ‘ठाकुर’ हैं! सबको साथ लेकर चलते हैं! समाजवाद में किसी एक जाति को टारगेट करना समाजवाद के नाम पर दोगलापन के अलावा कुछ नहीं! जब हम दूसरों के बारे में गलत नहीं सुन सकते तो अपने (ठाकुरों) पर अभद्र टिप्पणी बिल्कुल नहीं बर्दाश्त करेंगे!’

‘हम ‘ठाकुर’ हैं! सबको साथ लेकर चलते हैं! समाजवाद में किसी एक जाति को टारगेट करना समाजवाद के नाम पर दोगलापन के अलावा कुछ नहीं! जब हम दूसरों के बारे में गलत नहीं सुन सकते तो अपने (ठाकुरों) पर अभद्र टिप्पणी बिल्कुल नहीं बर्दाश्त करेंगे!’

चेतन आनंद, आरजेडी विधायक
अब ये मामला पूरी तरह सियासी हो गया है। विवाद बढ़ने के बाद लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल सांसद मनोज झा के साथ आ गई। पार्टी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि ‘राज्यसभा सांसद प्रोफेसर डॉक्टर मनोज झा जी का विशेष सत्र के दौरान दिया गया दमदार शानदार और जानदार भाषण।’ पूरे मामले पर विधायक चेतन आनंद अकेले पड़ते दिख रहे हैं।

‘ठाकुर का कुआं’ से किसे फायदा?

वैसे, इस ‘ठाकुर का कुआं’ कविता को दलित चिंतक कहे जाने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सालों पहले लिखा था। तब से अब तक समाज काफी बदल चुका है। समाज में अब न तो ‘ठाकुर का कुआं’ है और ना ही पहले वाले दलित। हालांकि, गरीबी जरूर है। मगर, वो भी पहले जैसी नहीं है। इक्का-दुक्का मामले को छोड़ दें तो समाज काफी आगे बढ़ चुका है। मगर, राजनेता ‘ठाकुर का कुआं’ जैसी चीजों में उलझाए रखना चाहते हैं, ताकि उनकी सियासी दुकान चलती रहे।

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