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‘भगवान के अपने देश’ में कट्टरपंथ की पैठ! बम ब्लास्ट ने केरल के हालात की पोल खोल दी

क्या होगा ईश्वर के अपने देश के साथ, अगर पूरब में मसाले की खेती वाले पहाड़ी ढलानों और पश्चिम में बहुरंगी रेत एवं समुद्र से उठे सफेद झाग के बीच हरी उष्ण कटिबंधीय भूभाग की एक पतली पट्टी पर मुस्कुराने के बजाय सवालों का सामना कर रहा ईश्वर कई स्वरूपों में विभक्त हो जाते हैं। गंभीर सवाल है कि क्या अपने-अपने स्वरूप में प्रत्येक ईश्वर क्रोधित होकर अपने अनुयायियों को युद्धपथ पर भेज देता है?

केरल को आज इस सवाल का सामना करना पड़ रहा है जब एक छोटे से धार्मिक समूह की सभा में बम विस्फोट हुआ जिसमें तीन लोग मारे गए जबकि कई अन्य घायल हो गए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बहुधार्मिक राज्य में संभावित रूप से विस्फोटक परिणामों के साथ राजनीतिक तापमान बढ़ गया है। दोषी को लक्षित धार्मिक समूह के एक सदस्य के रूप में तेजी से पहचान हो गई जिस कारण संभावित बड़ा खतरा टल गया। दोषी ने खुद ही पुलिस स्टेशन में आत्मसमर्पण करने से पहले एक फेसबुक लाइव में अपने अपराध को स्वीकार किया था। लेकिन उसकी स्वीकारोक्ति से पहले सोशल मीडिया पर अटकलों का अंबार लग गया कि बम विस्फोट कट्टरपंथी इस्लामी समूहों ने किए हैं।

भारत के राज्यों में केरल की धार्मिक संरचना अद्वितीय है। लगभग 57% जनसंख्या हिंदू है, 23% मुस्लिम और 19% ईसाई हैं। केरल के प्राचीन काल से ही लेवंत के साथ व्यापारिक संबंध हैं, और कोच्चि में लेवेंटाइन व्यापारियों का एक यहूदी समुदाय था, जब उनकी मातृभूमि में यहूदियों के एक अलग गुट ने यीशु मसीह को प्रतिज्ञा किए गए मसीहा के रूप में स्वीकार किया और मसीह के प्रेरित समर्थकों को जुटाने के मकसद से फैल गए।

माना जाता है कि प्रेरितों में से एक सेंट थॉमस, केरल और श्रीलंका पहुंचे और यहूदियों और कुछ स्थानीय निवासियों को नए धर्म में परिवर्तित कर दिया। आज भी केरल ईसाइयों के कई संप्रदाय सिरिएक में पूजा-अर्चना करते हैं, जो अरामी की एक शाखा है। माना जाता है कि सीरियक, मसीह द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। मूल धर्म परिवर्तित लोगों के वंशज सीरियाई ईसाइयों के अलावा यूरोपीय मिशनरियों द्वारा धर्म परिवर्तन की बाद की धाराओं ने केरल में ईसाई धर्म के कई धागों का निर्माण किया है।

इस्लाम भी केरल में व्यापारिक संपर्कों के माध्यम से आया, ठीक उसी सदी में जब इसकी स्थापना अरब देशों में हुई थी। एक केरल राजा के बारे में माना जाता है कि उसने इस्लाम धर्म अपना लिया था। ईसाई और मुसलमान सदियों तक हिंदुओं के साथ बिना किसी झगड़े के सह-अस्तित्व में रहे। इन दो समूहों ने बनियों के कारोबार पर कब्जा कर लिया। आज केरल के हिंदुओं में कोई स्पष्ट बनिया समूह नहीं है।

हिंदू धर्म की बहुदेववादी प्रकृति को देखते हुए भारत के प्रमुख धर्म के लिए बौद्ध समेत कुछ और पुराने संप्रदायों जैसी केरल की छोटी परंपराओं को अपने दायरे में शामिल करना मुश्किल नहीं था। ईसाई धर्म और इस्लाम भी इसी में शामिल हो गए।

यहोवा के साक्षी 1870 के दशक में अमेरिका में स्थापित बाइबल स्टडी ग्रुप से निकले हैं। बाइबल के उनके अध्ययन ने उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की पवित्र त्रिमूर्ति की धारणा को त्यागने के लिए प्रेरित किया। वे मानते हैं कि दुनिया पाप में रहती है और मुक्ति केवल उनके अनुयायियों के लिए ही संभव है। वे किसी भी राज्य को नहीं मानते हैं और सेना में सेवा करने या कोई भी राष्ट्रगान गाने से इनकार करते हैं।

केरल में एक स्कूल ने राष्ट्रगान गाने से इनकार करने के लिए कुछ युवा छात्रों को निष्कासित कर दिया। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। जस्टिस ओ चिनप्पा रेड्डी ने निष्कासन को रद्द कर दिया और कहा कि ‘हमारी परंपरा सहिष्णुता सिखाती है; हमारा दर्शन सहिष्णुता का उपदेश देता है; हमारा संविधान सहिष्णुता का अभ्यास करता है। इसे कमजोर न करें।’ उन्होंने फैसला सुनाया कि छात्र बिना गायन में शामिल हुए सम्मान में खड़े हो सकते हैं। केरल में उनकी मण्डली की संख्या लगभग 25 हजार है।

20वीं शताब्दी के मोड़ पर मालाबार से अलग दक्षिणी और मध्य केरल के राजवाड़े त्रावणकोर और कोचीन, मद्रास से ब्रिटिशों द्वारा प्रशासित होती थीं। इन दोनों प्रिंसली स्टेट्स में जाति विरोधी आंदोलनों का जोर था। कथित निम्न जातीय समूहों ने शिक्षा को मुक्ति का मार्ग माना और स्कूल खोलने पर विचार किया। ईसाई मिशनरियों ने अपने स्वयं के स्कूल स्थापित किए। अपनी धाक कायम रखने के लिए सरकार ने भी अपने स्कूल स्थापित किए।

उच्च जाति द्वारा एक कृषि श्रमिक जाति पुलया की एक लड़की को कक्षा में प्रवेश देने से इनकार करने के विरोध में पुलया नेता अय्यंकाली ने हड़ताल बुलाया। खेत मजदूरों ने परंपरा, भूख, अभाव, उच्च जाति के खतरों और हिंसा के जकड़नों को तोड़ा और दो मौसमों तक काम का बहिष्कार जारी रखा। अय्यंकालियों की हत्या के प्रयास भी हुए, फिर भी श्रमिकों की हड़ताल कायम रही। आखिर उच्च जाति के जमींदारों ने हार मान ली और सभी जातियों के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का फैसला किया। श्री नारायण गुरु ने हिंदू आध्यात्मिकता के भीतर जाति की वैधता को कम कर दिया। उन्होंने कहा कि अद्वैत-अद्वैत का दर्शन, जाति या धर्म के आधार पर भेद के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता। उनकी शिक्षाओं का जबरदस्त प्रभाव था।

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