बिहार की सियासत में चल रहा चूहे-बिल्ली का खेल, गुरु नीतीश के लिए ‘भस्मासुर’ बनेंगे तेजस्वी यादव?
बिहार में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच चूहे-बिल्ली का खेल पिछले आठ सालों से चल रहा है। पहली बार 2015 यह खेल प्रतिपक्ष में बैठे आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने शुरू किया था। एनडीए से बाहर आए नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू से महागठबंधन ने हाथ मिला लिया था। इस युगलबंदी ने भाजपा को विपक्ष में बैठने पर मजबूर कर दिया। तब से प्रतिपक्ष कभी चुप नहीं बैठा। बार-बार खेल होता रहा। इस बार नीतीश कुमार अलल ऐलान के साथ भाजपा के साथ आए हैं कि वे अब कहीं नहीं जाएंगे। हालांकि उनके इस बयान का ज्यादतर लोग मजाक उड़ाते हैं। इसलिए कि पहले भी उन्होंने इसी अंदाज में कहा था- मर जाएंगे, लेकिन भाजपा के साथ नहीं जाएंगे।
नीतीश की चालाकी आरजेडी समझ नहीं पाती
वर्ष 2015 में जेडीयू ने आरजेडी और कांग्रेस के साथ बने महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ा। आरजेडी को यह मुगालता था कि समाजवादी विचारधारा के नीतीश कुमार उससे अलग होने की बात सपने में नहीं सोच सकते हैं। उन दिनों लालू प्रसाद यादव पशुपालन घोटाले में जेल से जमानत पर बाहर आए थे। नीतीश को साथ लाने की रणनीति भी उन्हीं की थी। दरअसल 2005 के बाद से ही आरजेडी को सत्ता का स्वाद नहीं मिला था। लालू के दो लाल तेज प्रताप और तेजस्वी यादव बालिग हो चुके थे। लालू परिवार का पेशा ही राजनीति रही, इसलिए बेरोजगार चल रहे दोनों बेटों के रोजगार की चिंता उन्हें सता रही थी। यही वजह रही कि जेडीयू को आरजेडी से कम सीटें मिलने पर भी उन्होंने नीतीश को सीएम बनाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। लालू की रणनीति थी कि भाजपा से नीतीश का साथ छूटे और राजनीतिक रूप से अपरिपक्व उनके दोनों बेटों को एक बेहतर प्रशिक्षक मिल जाए। लालू अपनी रणनीति में कामयाब होने पर अभी इतरा ही रहे थे कि दो साल के भीतर ही नीतीश का मिजाज बदल गया। वे लालू से भी बड़े रणनीतिकार निकले। उन्होंने फिर भाजपा से हाथ मिला कर एनडीए की सरकार बना ली।
सिर्फ 17 महीनों के प्रशिक्षण में तेजस्वी पास
नीतीश के नेतृत्व में तेजस्वी यादव को पहली बार सिर्फ 17 महीने डेप्युटी सीएम के रूप में काम करने का मौका मिला। गठबंधन धर्म की मजबूरी न होती तो नीतीश कम उम्र के लड़के को शायद ही डेप्युटी सीएम बनाते। तेजस्वी को कम दिनों के ही नीतीश के साथ के बावजूद इतना तो पता चल चुका था कि राजनीति में अपनी जमीन खुद तैयार करनी पड़ती है। जातिवाद में जकड़े बिहार की राजनीति में सिर्फ अपनी जाति की चार प्रतिशत से कम आबादी के बावजूद नीतीश 2005 से 2015 तक सत्ता में जमे रहे तो इसके पीछे उनकी अपनी खड़ी की गई जमीन थी।



