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झारखंड के ‘शिमला’ में अब राजस्थान जैसी तपिश, गायब हो गए हजारों कुएं, सैकड़ों तालाब और दर्जनों छोटी नदियां

रांची के हर गली-मुहल्ले में दो-तीन दशक पहले तक तालाब जरूर नजर आते थे। स्वर्णरेखा और हरमू जैसी बड़ी नदी के अलावा दर्जनों नदियां में सालों भर पानी रहता था। जबकि कुछ बरसाती नदियां भी मॉनसून बीत जाने के बावजूद गर्मी के मौसम आने तक कलकल बहती रहती थी। उस वक्त पीने के पानी के लिए लोग कुआं पर ही निर्भर थे। अब शहर में अधिकांश लोग कुआं के स्थान पर पाईप जलापूर्ति या फिर बोरिंग पर निर्भर हो गए हैं। शहर से सटे कुछ ग्रामीण इलाकों में कुआं जरूर हैं, लेकिन गर्मी के मौसम में उन्हें भी परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं।

पाइप लाइन जलापूर्ति पर निर्भरता बढ़ती गई

उन्नीस सौ चौवन-पचपन के पहले रांची शहर के लोग पाइप लाइन जलापूर्ति योजना से अनजान थे। एचईसी की स्थापना के साथ हटिया डैम बनने तक शहर के अधिकांश लोग तालाब और कुआं पर ही निर्भर थे। इसी दौरान कांके और रूक्का डैम बनने से शहर की बड़ी आबादी को पाइप लाइन से जल मिलना शुरू हुआ, लेकिन इसके बावजूद वर्ष 2000 में अलग झारखंड राज्य गठन के पहले तक मुख्य रूप से कुआं पर ही निर्भर थे। पुराने समय के जानकार बताते है कि रांची को तालाबों की नगरी कहा जाता था। प्रायः सभी मार्गां पर बड़े-बड़े तालाब नजर आते थे। तालाब और कुआं बनवाने का काम संपन्न लोग भी करते थे। कभी-कभी सरकार की ओर से भी यह काम करवाया जाता था। ये तालाब या कुएं सार्वजनिक हुआ करते थे। उस वक्त जिनके पास थोड़ी जगह होती थी और संपन्न होते थे, वे अपने घर में एक कुआं जरूर बनवाते थे। जगह की कमी होने पर पड़ोस में रहने वाले दो परिवार मिलकर ऐसी जगह पर कुआं बनवा लेते थे, जिसका आधा-आधा भाग दोनों की जमीनों पर पड़ता था। इस बीच रांची में नगपालिका की ओर से नल से जल की आपूर्ति प्रारंभ कर दी गई। लोगों की कुएं पर निर्भरता खत्म होने लगी। जिसके बाद लोगों ने कुआं बनवाना बंद कर दिया। जबकि कुछ लोगों ने कुआं को बंद करवाना भी शुरू कर दिया। इस तरह से रांची में कुआं के समापन का सिलसिला चालू हो गया।

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