World

रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका-यूरोप के दबाव के बावजूद गुटनिरपेक्ष रहा भारत और अब इजरायल का पक्ष ले लिया!

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का क्षेत्र बहुत रोमांचकारी है। कभी धूप तो कभी छांव वाले हालात बनते हैं यहां। अलग-अलग परिस्थितियों में अपने सर्वोत्तम हित के लिए गेम प्लान तैयार करना और उस पर सलीके से आगे बढ़ने का नाम ही कूटनीति है। अगर इसे खेल माना जाए तो जीत-हार इस बात पर तय होती है कि आपने अपने पक्ष में कितने खिलाड़ियों को खींचने में सफलता पाई या फिर कितने खिलाड़ी आपके विरोध में खेल रहे हैं। इससे इतर, अगर आप कम खिलाड़ियों या कई बार अकेले दम पर भी खेल को आगे बढ़ाते हैं तो भी जीत की गुंजाइश बनी रहती है। अगर आप अकेले सब पर भारी पड़े तो क्या कहने- जीत आपकी। भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में यह मिसाल पेश कर चुका है।

एक तरफ अमेरिका जैसी महाशक्ति के साथ-साथ विकसित विश्व का प्रतिनिधि पूरा यूरोप और दूसरी तरफ भारत, अकेला अटल। अमेरिका और यूरोप ने भारत पर यूक्रेन के पक्ष में रूस से रिश्ता तोड़ने का न जाने किस-किस तिकड़म से दबाव बनाए, लेकिन भारत अपने फैसले पर अडिग रहा- बिल्कुल निर्द्वंद्व। यह कूटनीति का एक रंग है। अब इसका दूसरा रंग देखिए। इजरायल पर हमास ने हमला कर दिया तो वही भारत बिना ज्यादा देर किए इजरायल के साथ खड़ा हो गया। पहली बार भारत ने स्पष्ट कहा कि हमास की कार्रवाई एक आतंकी गतिविधि है। यह सवाल तो आपके जेहन में भी कौंध रहा होगा कि आखिर अमेरिका-यूरोप को दरकिनार करके ‘गुटनिरेपक्षता’ की नीति को आगे बढ़ाने वाला भारत कुछ ही महीनों बाद कैसे एक ‘पक्षपाती’ बन गया। मजे की बात है कि दोनों ही फैसलों के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही सरकार है।

पहली बार इजरायल के साथ खुलकर खड़ा हुआ भारत

6 अक्टूबर को यहूदी नववर्ष के मौके पर हमास ने जब इजरायल पर बर्बर हमला किया तो पीएम मोदी ने लिखा कि भारत और यहां की सरकार इजरायल के साथ खड़ा है। उन्होंने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म एक्स पर पोस्ट किया, ‘इजराइल में आतंकवादी हमलों की खबर से गहरा सदमा लगा है। हमारी संवेदनाएं और प्रार्थनाएं निर्दोष पीड़ितों और उनके परिवारों के साथ हैं। हम इस कठिन समय में इजराइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं।’ इस पर रणनीतिक मामलों के जानकार सुशांत सरीन ने लिखा, ‘हे भगवान! हमने आखिरकार क्लियर स्टैंड लिया और कोई गोल-मोल बात नहीं की।’

तीन दिन बाद इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने पीएम मोदी को फोन मिलाया। इस बातचीत के बाद भारतीय पीएम ने फिर एक पोस्ट किया। इसमें उन्होंने लिखा, ‘मैं प्रधानमंत्री नेतन्याहू को उनके फोन कॉल और ताजा हालात की जानकारी देने के लिए धन्यवाद देता हूं। भारत के लोग इस मुश्किल घड़ी में इजराइल के साथ मजबूती से खड़े हैं। भारत आतंकवाद के सभी रूपों और अभिव्यक्तियों की कड़ी और स्पष्ट रूप से निंदा करता है।’ सुशांत सरीन ने पीएम के इस पोस्ट पर भी प्रतिक्रिया दी और लिखा, ‘यह देखकर अच्छा लगा कि भारत सरकार एकदम स्पष्ट है और इजरायल के खिलाफ आतंकवाद की निंदा करने के लिए किसी तरह से ‘किंतु-परंतु’ नहीं कर रही है।’

फिलिस्तीन के लिए नेहरू ने आइंस्टीन को निराश किया था

ऊपर के दोनों पोस्ट में दो बातें कॉमन हैं, पहला- हमास ने जो किया वो आतंकवाद है और दूसरा- भारत, इजारयल के साथ मजबूती से खड़ा है। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार भारत के इस स्टैंड को रणनीति में बदलाव के तौर पर देख रहे हैं। जैसा कि सुशांत सरीन ने लिखा भी है। अतीत में भारत हमेशा से फिलिस्तीन का पक्ष लेता रहा है। यहां तक कि जब भारत की आजादी के एक वर्ष बाद इजरायल अस्तित्व में आया तो तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उसका खुलकर विरोध किया। वो भी तब जब उस वक्त के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने नेहरू को चार पन्नों की चिट्ठी लिखकर इजरायल के समर्थन की अपील की थी। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के मुद्दे पर वोटिंग होनी थी। 13 जून, 1947 को आइंस्टाइन ने नेहरू को पत्र लिखा, ‘प्राचीन लोग, जिनकी जड़ें पूरब में हैं, अरसे से अत्याचार और भेदभाव झेल रहे हैं। उन्हें न्याय और समानता चाहिए।’

नेहरू ने तो पहले लंबे वक्त तक चिट्ठी का जवाब ही नहीं दिया। फिर 11 जुलाई, 1947 को अपनी जवाबी चिट्ठी में लिखा, ‘मैं स्वीकार करता हूं कि मुझे यहूदियों के प्रति बहुत सहानुभूति है तो अरब लोगों के लिए भी है। मैं जानता हूं कि यहूदियों ने फिलिस्तीन में बहुत शानदार काम किया है और उन्होंने वहां के लोगों का जीवनस्तर सुधारने में बड़ा योगदान दिया है, लेकिन एक सवाल मुझे परेशान करता है। आखिर इतने बेहतरीन कामों और उपलब्धियों के बावजूद वो अरब का दिल जीतने में क्यों कामयाब नहीं हुए? वो अरब को उनकी इच्छा के खिलाफ क्यों अपनी मांगें मानने के लिए विवश करना चाहते हैं?’ नेहरू के इस रुख से पहले मोहन दास करमचंद गांधी ने 26 नवंबर, 1938 को हरिजन पत्रिका में यहूदियों और फिलिस्तीनी मुसलमानों को लेकर अपना रुख स्पष्ट किया था। उन्होंने लिखा था, ‘यहूदियों के लिए धर्म के आधार पर अलग देश की मांग मुझे ज्यादा अपील नहीं करती। फिलिस्तीन अरबों का है, जिस तरह इंग्लैंड ब्रिटिश का और फ्रांस फ्रेंच लोगों का है और अरबों पर यहूदियों को थोपना गलत और अमानवीय है।’

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button