भारत से अपनी निर्भरता क्यों नहीं हटा सकता नेपाल? चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा कम्युनिस्ट चीन
नेपाल कम्युनिस्ट दोस्त चीन के साथ अधिक गहरे राजनीतिक संबंधों और आधुनिक कनेक्टिविटी के बावजूद भारत पर तेजी से निर्भर हुआ है। भारत पर अपनी इसी निर्भरता को कम करने के लिए नेपाल की कम्युनिस्ट सरकारें अपने उत्तरी पड़ोसी चीन के साथ संपर्क को मजबूत कर रही हैं। अधिकांश नेपाली राजनेता, जिसमें सबसे अधिक कम्युनिस्ट हैं, वे अधिक निर्भरता के लिए भारत को दोषी ठहराते हैं। लेकिन, वो ये भूल जाते हैं कि भौगोलिक परिस्थितियों, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक जुड़ाव के कारण वे भारत के ज्यादा करीब हैं ना कि चीन के। चीन इसी का फायदा उठा रहा है और नेपाली नेताओं को प्रलोभन देकर अपने प्रभाव को तेजी से बढ़ा रहा है। ऐसे में नेपाल में चीन की भूमिका पर गौर करना जरूरी है।
नेपाल में चीनी घुसपैठ को जानने के लिए 1950 के दशक में जाना जरूरी है। उस समय चीन में कम्युनिस्ट शासन की शुरुआत के साथ-साथ दक्षिण एशिया के एक बड़े हिस्से में उपनिवेशवाद की समाप्ति हुई थी। इससे हिमालयी देशों में राजनीति तेजी से बदली थी। भारत ने 1947 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता प्राप्त की, वहीं चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1949 में राष्ट्रवादी सरकार पर अपनी जीत के बाद 1950 के दशक के अंत तक तिब्बत पर भी कब्जा करे अपनी राजनीतिक परियोजना पूरी की। उस समय स्वतंत्र भारत हिमालय की राजनीति में अपना कद मजबूत कर रहा था और चीन भी वही कर रहा था।
नेपाल-तिब्बत संबंधों को चीन ने किया खराब
इन बाहरी घटनाओं के कारण नेपाल का नया-नया लोकतंत्र शुरू होते ही लड़खड़ाने लगा। इसका प्रमुख कारण राणा शासन की पहले की अपनी स्थिति और शक्तियां प्राप्त करने के लिए राजशाही की बढ़ती मुखरता थी। । नेपाल की घरेलू राजनीति की निरंकुश प्रकृति के साथ इन बदलती बाहरी घटनाओं ने इस हिमालयी देश पर बहुत प्रभाव डाला। चीन के तिब्बत पर कब्जा करने से पहले एख राज्य के रूप में नेपाल के पास तिब्बत में कई विशेषाधिकार थे। व्यापार के बढ़े हुए स्तर और लोगों के आवागमन के माध्य से निपालियों को हिमायल के दूसरी ओर कनेक्टिविटी का लाभ मिला। उस वक्त सीमाएं खुली और स्वतंत्र थीं। हालांकि, हिमालय के राजनीतिकरण के साथ यह स्थिति धीरे-धीरे समाप्त हो गई।
नेपाल को कनेक्टिविटी की ‘गोली’ दे रहा चीन
इसकी शुरुआत मुख्य रूप से तिब्बत में साम्यवादी चीन के प्रत्यक्ष शासन की स्थापना के साथ हुई। इसका मतलब यह था कि नेपाल अब उन संबंधों का आनंद नहीं ले सकता जो सदियों से नहीं तो वर्षों से चले आ रहे थे। 1856 की नेपाल-तिब्बत संधि के तहत नेपाल और तिब्बत के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंध काफी हद तक 1955 में नेपाल के तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को मान्यता देने के साथ समाप्त हो गया। इसका अर्थ है कि स्वतंत्र तिब्बत के साथ नेपाल की पहले से मौजूद सभी संधियां रद्द कर दी गईं। हालांकि, इसका अर्थ यह नहीं है कि चीन के साथ नेपाल की कनेक्टिविटी तब से रूकी हुई है। प्रौद्योगिकियों की प्रगति ने ट्रांस-हिमालयी पहुंच को और अधिक संभव बना दिया है। दोनों देशों ने व्यापार, परिवहन, निवेश, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, पार्टी-टू-पार्टी संबंध और लोगों से लोगों के आंदोलनों में कनेक्टिविटी बढ़ाई है। 1967 में चीन-नेपाल राजमार्ग के खुलने से इस आधुनिक घटना की शुरुआत हुई।
तिब्बत में नेपाल की ‘नो एंट्री’ चाहता है चीन
बहरहाल, आधुनिक कनेक्टिविटी के बावजूद, हिमालय का पूरा इलाका पहले से कहीं अधिक सैन्यीकृत हो गया है। इसमें नेपाली हिमालय भी शामिल है। इतिहास में किसी भी समय की तुलना में हिमालय की विभिन्न सीमाओं पर अधिक सुरक्षाकर्मी तैनात हैं। इसका असर चीन-नेपाल सीमा पर भी पड़ा है। जैसे-जैसे साल बीतते गए, सीमा पार गतिविधियां अधिक जटिल, प्रतिबंधित, विदेशी और शत्रुतापूर्ण हो गई हैं, यहां तक कि सीमा पर रहने वाले लोगों के लिए भी। चीन के लिए तिब्बत एक अविश्वसनीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र है। ऐसे में उसके लिए अलगाववाद और विद्रोह रोकना सर्वोच्च प्राथमिकता है।



