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मछली में जहर, अंग्रेजों ने भी रची हत्या की साजिश, फिर भी ऐसे बच निकले बिहार के पूर्व CM विनोदानंद झा

आजादी लड़ाई में सक्रिय भागीदारी और फिर बिहार की राजनीति में करीब चार दशक तक प्रभावी भूमिका निभाने वाले विनोदानंद झा को दो-दो बार जान से मारने की साजिश रची गई। पहली बार आजादी की लड़ाई के दौरान एक अंग्रेज अफसर ने जेल से शिफ्ट करने के बहाने उनकी हत्या की साजिश रची। दूसरी बार विनोदानंद झा के राजनीतिक विरोधियों ने ही उन्हें भोजन में जहर देकर मारने की योजना बनाई। मगर दोनों ही बार ईश्वर ने विनोदानंद झा का साथ दिया। अंग्रेज असफर और उनके राजनीतिक विरोधियों की मंशा सफल नहीं हो सकी।

आजादी की लड़ाई में 5 बार लंबी जेल यात्रा

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विनोदानंद झा को पांच बार जेल जाना पड़ा। वर्ष 1922, 1930, 1939, 1940 और 1942 में लंबी अवधि के लिए विनोदानंद झा को जेल में रहना पड़ा। एक बार की जेल यात्रा के दौरान संताल परगना के कमिश्नर ने उन्हें जान से मारने की योजना बनाई। इतिहासकार और शिक्षाविद् डॉ. जितेंद्र कुमार सिंह बताते है कि आजादी की लड़ाई के दौरान एक बार विनोदानंद झा दुमका जेल में बंद थे। जेल में उन्हें ग्रेनाइट की चट्टानों को तोड़ कर गिट्टी बनाने का काम दिया गया था। इस काम को करने के लिए उन्होंने आंखों पर लगाने के लिए एक खास तरह के गोगल्स (चश्मा) की मांग की। जेल में तहलका मच गया कि कैदी गोगल्स लगाकर पत्थर तोड़ेंगे। अंग्रेजी शासन में यह तो कभी किसी ने सुना ही नहीं था। विनोदानंद झा ने इसके लिए कुछ प्रमाण जुटाकर अंग्रेज अफसर को बताया कि अफ्रीका के अविकसित इलाके में जहां यूरोपियन लोगों का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर है, वहां के मूल निवासियों को यदि जेल में पत्थर तोड़ने के लिए कहा जाता है, तो उन्हें गोगल्स अवश्य दिए जाते हैं।

दुमका से देवघर जेल शिफ्ट करने के दौरान हत्या की योजना

अंग्रेज अफसर विनोदानंद झा की गोगल्स की मांग से झल्ला उठा। उसे कोई रास्ता नहीं सूझा। उसने गुस्से में आकर विनोदानंद झा को दुमका जेल से देवघर शिफ्ट करने की योजना बनाई। अंग्रेस अफसर के इस फैसले से पूरे जेल में सनसनी फैल गई, क्योंकि तब इस तरह से जेल ट्रांसफर का मतलब लोग बिना बतलाए समझ लेते थे। कैदियों को पता था कि शाम में दुमका जेल से विनोदानंद झा की रवानगी तो जरूर होगी, लेकिन वे सुबह देवघर नहीं पहुंच सकेंगे। तय समय में विनोदानंद झा को हथकड़ियां पहना दी गई और जेल की सींखचों वाली गाड़ी के भीतर बैठा दिया गया। जेल के हवलदार चौबे जी और सिपाहियों के साथ उनके आस-पास बैठे। भारतीय सिपाही स्वयं समझ रहे थे कि यह बहुत बड़ा पाप होने जा रहा है। विनोदानंद झा हवलदार से बातचीत कर रहे थे, तभी शाम होते ही रास्ते में एक गाड़ी रुकी जेल की गाड़ी के आगे आकर खड़ी हो गई। उस गाड़ी से आरचर (अंग्रेज अफसर) उतरा। आंखें शराब के नशे में लाल थी और हाथ में पिस्तौल थी। आरचर ने कैदी को नीचे उतारने का आदेश दिया। लेकिन इस दौरान हवलदार के भीतर का देवता जागा। उसने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि गाड़ी में बैठे कैदी को जीवित अवस्था में देवघर जेल को सौंपने की जिम्मेदारी मिली है। इस कार्यक्रम में बाधा आएगी, तो उसे सरकारी कार्य में बाधा माना जाएगा। इस समय सारे अधिकार हवलदार के पास यानी मेरे पास हैं। इतना कहते ही हवलदार और उनके सिपाहियों ने बंदूकें तान लीं। आरचर दांत पीसता हुआ और गाली बकता हुआ गाड़ी घुमा कर दुमका चला गया। इस तरह से पहली बार विनोदानंदा झा एक प्रकार से मौत के द्वार पर दस्तक देकर बाहर निकल गए।

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