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चीतों की मौत के बावजूद सरकार नहीं है नाउम्मीद, इसके पीछे की वजह भी जान लीजिए

भारत की धरती पर चीतों के आगमन का आज एक साल पूरा हो गया। आज ही के दिन पिछले साल मध्यप्रदेश के श्योपुर स्थित कूनो नेशनल पार्क में अफ्रीका स्थित नामीबिया से आठ चीतों की पहली खेप भारत आई थी। उसके बाद इस साल के शुरू में एक दर्जन चीतों की दूसरी खेप फरवरी में दक्षिण अफ्रीका से आई। पिछले एक साल में जहां 20 चीतों को भारतीय परिवेश में बसाने की कोशिश हुई। दूसरी ओर भारत में चीतों की अगली पीढ़ी ने भी आंखे खोलीं। इस दौरान चीतों की कुल नौ मौतें में भी हुईं। इनमें बाहर से आने वाले चीतों के अलावा यहां पैदा होने वाले चार शावकों में तीन की जान चली गई। हालांकि सरकार चार पैदा हुए शावकों में से बचे एक मादा शावक को उम्मीद की किरण के तौर पर देख रही है, जो भारतीय परिवेश पल-बढ़ रहा है।

नए चीतों को लाने की तैयारी

इन शावकों को पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भविष्य में चीतों की आबादी बढ़ाने और उनके पुनर्स्थापन के लिए उम्मीद के तौर पर ले रहा है। यह मादा शावक साढ़े पांच महीने की हो चुकी है। यह ना सिर्फ पूरी तरह से स्वस्थ है, बल्कि काफी फुर्तीली और सक्रिय है। इन मौतों से हतोत्साहित होने की बजाय वन विभाग व सरकार सबक लेते हुए प्रोजेक्ट चीतो देश में आगे बढ़ाने की तैयारियों में लगी हुई है। प्रोजेक्ट चीता से जुड़े अधिकारी मानते हैं कि देश में चीता की पुनर्स्थापना संभव है। सरकार देश में आने वाली चीतों की अगली खेप के लिए जरूरी आवास बनाने के काम में पुरजोर तरीके से जुटा है।

कूनों का पास बनेगा नेशनल पार्क

इतना ही नहीं, सरकार चीतों के आवास के लिए कूनों के साथ-साथ विकल्प के तौर दूसरे नेशनल पार्क को तैयार करने में जुटी हुई है। कूनो के अलावा, मध्य प्रदेश के गांधी सागर और नौरादेही नेशनल पार्क में भी चीतों को बसाने की तैयारियां की जा रही हैं। नौरादेही मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा प्राणी अभ्यारण है। सूत्रों के मुताबिक, चीतों की अगली खेप गांधी सागर में लाई जा सकती है। इसे इस हिसाब से तैयार किया जा रहा है। मध्य प्रदेश के मंदसौर व नीमच इलाके में बसे गांधी सागर में चीतों के आने से पहले इन तैयारियों का जायजा लिया जाएगा, उनका बाकायदा मूल्यांकन होगा, उसके बाद इस पर फैसला होगा।

श्योपुर में चीतों ने बिठाया तालमेल

दरअसल, श्योपुर में चीते की क्षमता 21 है, जबकि यहां फिलहाल यहां अभी 14 वयस्क और एक मादा शावक है। इस बारे में इस बारे में वन्यजीव मामलों के अतिरिक्त महानिदेशक एस पी यादव का कहना था कि जिस तरह से पहले ही साल में बाहर से आए चीतों ने भारत को अपने आवास के तौर पर अपनाया और कुशल शिकारी के तौर पर यहां सामंजस्य बैठाया, वह काफी उत्साहजनक है। इन चीतों ने भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल शानदार प्रदर्शन किया है। वहीं भारत में चीतों की प्रजाति को आगे बढ़ाने के लिए सरकार बाहर से अपेक्षाकृत युवा चीतों को लाने पर जोर दे रही है, जो आसानी से यहां के वातावरण में ढल जाएं और प्रजनन में तेजी आ सके।

चीतों की क्वालिटी पर जोर

पहले साल में बाहर से आए लगभग एक-तिहाई चीतों की मौतों के मद्देनजर सरकार जहां एक ओर चीतों की क्वालिटी पर जोर दे रही है। वहीं एक साल के अनुभव के दौरान उसे पता चला है कि किन वजहों से चीजों की मौत हुई। इसमें एक वजह सामने आई, चीतों में सेप्टीसीमिया का होना। पहले माना जा रहा था कि चीतों के गले में लगे रेडियो कॉलर उनकी मौत की वजह बन रहे हैं, लेकिन बाद में सामने आया कि इसकी वजह बना चीतों में पिछले हिस्से में विकसित होने वाला शीतकालीन कोट या फरों का गुच्छा। दरअसल, साउथ अफ्रीका में जून से सितंबर तक तेज ठंड होती है। इससे बचाव के लिए उनके शरीर पर फर का गुच्छा तैयार होता है । लेकिन भारत में यह समय गर्मी व नमी भरा होता है। इससे इनमें खुजली की समस्या होने लगी। खुजली मिटाने के लिए इन प्राणियों ने जब पेड़ के तने या किसी कठोर सतह से बदन को रगड़ा तो उनके शरीर में घाव हो गए। इन पर मक्खियों व अन्य कीटों द्वारा अंडे देने या उन पर बैठने से घाव में संक्रमण हो गया, जो आगे चल कर सेप्टीसीमिया में बदल गया। यह इनकी मौत का कारण बना। हालांकि यह फर कुछ चीतों को छोड़कर बाकी चीतों में नहीं विकसित हुए। वे सब ठीक रहे। चीता विशेषज्ञों का कहना है कि चीतों की अगली खेप लाते समय इन चीजों का भी खास ख्याल रखा जाएगा।

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