रांची: ल्युपस, जिसे मेडिकल भाषा में “सिस्टेमिक ल्युपस एरिथेमेटोसस (SLE)” कहा जाता है, एक खतरनाक ऑटोइम्यून बीमारी है।
ऑटोइम्यून बीमारी वह होती है जब शरीर की रक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) अपने ही अंगों को नुकसान पहुँचाने लगती है।
इसे ऐसे समझें जैसे घर का वफादार कुत्ता अचानक पागल हो जाए और मालिक को ही काटने लगे।
ल्युपस में यही होता है – हमारी इम्यून प्रणाली शरीर के स्वस्थ ऊतकों पर हमला करने लगती है।
यह रोग विशेष रूप से महिलाओं में ज़्यादा पाया जाता है और अक्सर प्रजनन उम्र में सक्रिय होता है।
मुख्य लक्षणों में चेहरे पर तितली के आकार का लाल चकत्ता (malar rash), बालों का झड़ना, जोड़ों का दर्द और थकान शामिल हैं।
अगर समय रहते ध्यान न दिया जाए, तो यह किडनी, फेफड़ों, मस्तिष्क और हृदय जैसे अहम अंगों को भी क्षतिग्रस्त कर सकता है।
शरीर की “फैगोसाइटिक प्रणाली” (कचरा साफ करने वाली कोशिकाएँ) कमजोर हो जाती है, जिससे मृत ऊतक हट नहीं पाते।
यही ऑटोएंटीबॉडी आगे चलकर शरीर में सूजन और अंगों को खराब करने का काम करते हैं।
चेहरे पर आने वाले “मैलर रैश” को सनबर्न समझने की गलती न करें – यह ल्युपस का प्रारंभिक संकेत हो सकता है।
सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाव करना बेहद ज़रूरी है, जैसे टोपी, हिजाब, सनस्क्रीन या छाता का उपयोग।
इसी उद्देश्य से झारखंड रुमेटोलॉजी एसोसिएशन ने आज एक जनजागरूकता अभियान आयोजित किया।
कार्यक्रम में संस्था के अध्यक्ष प्रो. (डॉ.) आर.के. झा, संयुक्त सचिव डॉ. बिंध्याचल गुप्ता सहित कई चिकित्सक और मरीज शामिल हुए।
मरीज अंजलि बेदिया और सम्मी भगत ने अपने अनुभव साझा किए और लोगों को जागरूक किया।
डॉ. देवनीस खेस ने बताया कि हम यदि समय रहते लक्षण पहचान लें, तो ल्युपस को काबू में रखा जा सकता है।
कार्यक्रम में मौजूद लोगों ने अनेक सवाल पूछे, जिनका विशेषज्ञों ने सरल भाषा में उत्तर दिया।
लोगों ने यह जाना कि स्वस्थ जीवनशैली और धूप से बचाव इस बीमारी की रोकथाम में अहम भूमिका निभा सकता है।
झारखंड रुमेटोलॉजी एसोसिएशन आगे भी ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से जागरूकता फैलाता रहेगा।


